शादी या तमाशा

आज सुबह माँ से बात हुई तो पता चला कि मेरी एक भतीजी की शादी तय हो गई है और दस दिन बाद उसकी गोद भराई की रस्म है। लड़का एक बहु राष्ट्रीय कंपनी में अफ़सर है। मेरे भाई एक डिग्री कालेज में रीडर हैं और मेरी भतीजी एम एस सी पास है। विवाह अगले नवंबर में होगा।

यहाँ तक तो खुशी की बात थी । पर इसके आगे की बात सुन कर मैं सोच में पड़ गई। गोद भराई की रस्म में दूसरे शहर से पच्चीस लोग आ रहे हैं, जिनके ठहरने, खाने-पीने, स्वागत सत्कार और विदाई के उपहार का ’डीसेंट’ इंतज़ाम करना है। यह भी आग्रह है कि लड़के को तनिष्क की ही हीरे की अंगूठी पहनाई जाए ("यदि आप इंतज़ाम न कर सकें तो हमें बता दें, हम साथ ले आएंगे, आप सिर्फ़ बिल चुका दीजिएगा")। गोद भराई की वेन्यू स्टैंडर्ड की होनी चाहिये नहीं तो उनके रिश्तेदार क्या कहेंगे? उनके घर के पहले लड़के की शादी है इसलिए पूरा परिवार लड़की से मिलना चाहता है, कोई नवंबर तक रुकने को तैयार नहीं, सो सबको लाना पड़ रहा है- यह सब जता दिया गया है।

मैं भाई के माथे पर पड़ती चिंता की रेखाओं की कल्पना कर रही हूँ। अध्यापक आदमी, वेतन ही कितना मिलता है। किसान पिता कुछ छोड कर नहीं गए थे सो मकान का इंतज़ाम, दो ब़च्चों की शिक्षा सब इसी नौकरी के भरोसे किया। खींच तान कर बेटी की शादी के लिए कुछ पैसे जोड़े थे, उसमें से आधे तो गोद भराई के समारोह में खर्च हो जाएंगे। शादी में क्या होगा? उस समय और चीज़ों के साथ कार की माँग भी है। बुढा़पे के लिए जो प्राविडेंट फ़ंड जोड़ा था, उसमें से निकालेंगे, काफ़ी कुछ उधार भी लेना पडे़गा। लड़की सत्ताइस साल की हो गई है, वह किसी भी कीमत पर हाथ आए रिश्ते को जाने नहीं दे सकते।

मुझे विवाह के विशाल आयोजन की रोज़ रोज़ बढ़ती इस प्रथा पर ही कोफ़्त होती है। पहले सिर्फ़ विवाह बड़ा समारोह होता था। सगाई और संगीत नितांत घरेलू मामले होते थे जिनमें गिने चुने मेहमानों को घर में ही बना चाय नाश्ता करा दिया जाता था। अब यह दोनों भी बडे़ समारोह बन गए हैं जिनके लिए हाल बुक करना होता है, सजावट होती है, डी जे बुलाया जाता है,केटरिंग कराई जाती है। पहले सोने के गहने काफ़ी होते थे, अब हीरों के सेट के बिना दहेज पूरा नहीं माना जाता। रोज़ रोज़ हमें बताया जो जा रहा है कि Diamonds are a girl's best friends. जीते जागते लोग नहीं, हीरे आपके सच्चे दोस्त हैं। शादी के नाम पर एक पूरी इंड्स्ट्री चालू हो गई है। पत्रिकाएं विवाह विशेषांक छापती हैं जिसमें पैसे खर्च करने के एक हज़ार तरीके सुझाए जाते हैं। जिनके पास पैसा है, वह शादी में बेतहाशा खर्च करना एक स्टेटस सिंबल समझते हैं। जिनके पास नहीं है, वह उनकी नकल में बूते से ज़्यादा खर्च करते हैं, चाहे इसके लिए उन्हें घर गिरवी रख कर कर्ज़ ही क्यों न लेना पडे़। शादी एक संस्कार न रह कर एक तमाशा बन कर रह गई है।

मुझे आज के युवा वर्ग पर आश्चर्य होता है, अफ़सोस भी। अच्छी शिक्षा व नौकरी होने के बावज़ूद लड़के को इस बेमतलब के खर्चे में कोई बुराई नहीं नज़र आ रही है। उसके बाप का पैसा थोड़े ही खर्च हो रहा है? यहाँ तो जिसके बाप का पैसा खर्च हो रहा है, उसे भी कोई परेशानी नहीं है। लड़की हज़ारों का लहँगा खरीद कर लाई है मौके के लिए। ब्यूटी पार्लर का पैकेज बुक किया है। वेन्यू की सजावट के लिए खर्चीला डेकोरेटर उसने पसंद किया है। उसकी गोद भराई क्या रोज़ रोज़ होगी? पिताजी का पैसा जाए तो जाए। आखिर बेटी पैदा करने की गलती की है, अब पैसा खर्च करने से क्यों घबरा रहे हैं?

मुझे खीझ होती है आज की शिक्षा प्रणाली पर जो लोगों को सही-गलत में अंतर करना नहीं सिखा पाती। जो नहीं सिखा पाई मेरे पी एच डी भाई को कि किसी की अनुचित माँग के आगे झुकना गलत है, कि उन्हें यह सारे पैसे खर्च करने ही थे तो अपनी बेटी की ऐसी शिक्षा दिलाने में खर्च करने चाहिए थे जो उसे स्वावलंबी बनाती, एक बोझ नहीं जिसे वह अपने कंधे से उतार कर किसी और के कंधे पर डाल रहे हैं। जो नहीं सिखा पाई मेरी एम ए, बी एड भाभी को कि अगर उनकी बिरादरी के लड़के बिना दहेज लिए उनकी सुंदर, शिक्षित बेटी से शादी करने के लिए तैयार नहीं हैं, तो वह उनकी बेटी के लायक नहीं हैं और उन्हें अपनी जात बिरादरी की ज़िद छोड़ कर ऐसे लड़के की तलाश करनी चाहिए थी जिसकी दॄष्टि में लड़की के गुणों का मूल्य होता। जो नहीं समझा पाई मेरी भतीजी को कि अगर शादी की टीम टाम और आडंबर की कीमत पिता को कर्ज़ में डुबाना है तो यह कीमत बहुत ज़्यादा है और चुकाने योग्य नहीं है। जो नहीं सिखा पाई उस लड़के को कि स्वाभिमान किस गुण का नाम है और यह कि दहेज में हीरे की अँगूठी और कार माँगने की बजाय उसे अपनी कमाई पर विश्वास होना चाहिए। नहीं सिखा पाई उसके माता पिता को कि बाहरी दिखावे के लिए आग्रह करके और दहेज माँग करके वह अपनी हैसियत एक याचक की बना ले रहे हैं।

इस विवाह में शामिल होना मेरे लिए ज़रूरी होगा, पर मुझे नहीं लगता कि इस नाटक के किसी भी पात्र की मैं कभी इज़्ज़त कर पाऊँगी।

8 comments:

Ila's world, in and out said...

बहुत अच्छे विचार आपने अपनी पोस्ट में व्यक्त किये हैं.मेरा भी यही मानना है कि ऐसी पढाई-लिखाई का क्या फ़ायदा जो लडके और लडकी दोनों को ये ना सिखा सके कि दो लोगों के और दो परिवारों के मेल में आडम्बर-पूर्ण समारोहों की क्या ज़रूरत है.

आशीष कुमार 'अंशु' said...

तमाशा ही है

आशीष कुमार 'अंशु' said...

तमाशा ही है

Shambhu Choudhary said...

वन्दना जी,
नमस्कार!
आपका लेख 'शादी या तमाशा' आपने सही लिखा है "शादी एक संस्कार न रह कर एक तमाशा बन कर रह गया" समाज में हो रहे इन आडंबरों पर हम जितनी बात करते हैं वह उतनी ही तेजी से फ़ैलते जाता है। एक बाप बनकर वह भी वही करता है जो दूसरा बाप उसके साथ कर रहा होता। हमें शिक्षा प्रणाली को दोष देने के वजाये उस माँ-बाप को कठघरे में खड़ा करना होगा जो, लड़की के मामले में दयावान का पात्र और लड़के के मामले में समाज की चिन्ता करने लगता है। आपका लेख बहुत ही अच्छा और विषय को काफ़ी महनेत से उठाने का प्रयास किया है। सच में आपने एक भावानात्मक विषय सुन्दर प्रयास किया है। बहुत-बहुत बधाई!
शम्भु चौधरी
सह-संपादक, समाज विकास

Anonymous said...

Vandana ji,
Bahut achchha laga aapka ye lekh. Bahut-Bahut Badhai

Dr. Ally Critter said...

I really like your post on th quantity of money that is spent unnecessarily on weddings. however, I wonder, isn't the cause of this the emphasis our culture puts on weddings per se? Aren't the magazines, the jewelery makers, fashions etc all taking advantage of the fact that weddings are an inevitable necessity for everyone- whether or not they are ready for it.
I personally think that as a society we have not really evolved. We have just started using new technology to further an atavistic way of life. And crass commercialization has followed simply to exploit what is as inevitable. OIur families still insist on early weddings for men and women, early and arranged ones, keeping the caste hierarchies as solid as ever- w only do our searches on the internet. So too for our ancient traditional customs- companies, just package and sell them to us- from packaged vrat food to ready made wedding garlands. From life insurance policies to loans specifically for daughters weddings. Because the underlying assumptiosn have not changed.
And as long as we do not take effort to change those, we do not have a right to complain only about one aspect of this.

दिनेश श्रीनेत said...

चोखेर बाली से गुजरते हुए आपका प्रोफाइल देखा और फिर ब्लाग। मेरा जन्म परवरिश गोरखपुर में हुआ है और इन दिनों बैंगलोर के एक न्यूज पोर्टल में संपादक हूं। आपकी पोस्ट बहुत पुरानी है अगली पोस्ट का इंतजार रहेगा। मेरी मेल आईडी हैः
shrinet@oneindia.in

vijay kumar sappatti said...

aapne bahut acha likha hai . shaadi mein aajkal itna jyada karcha karten hai aur sirf dikhave ke liye .. ye hamen yaad rakhna hai ki paiso ka sahi istemaal ho .. aapne bahut acha muddha uthaya hai , iske liye badhai ..


vijay

pls visit my blog : http://poemsofvijay.blogspot.com/