एक कहानी जीवन की


From left to right: Ann, Emily and Charlotte


बहुत बचपन में अंग्रेज़ी में एक उपन्यास का संक्षिप्त रूपांतर पढ़ा था, जिसका नाम था 'जेन आयर'| किताब मुझे इतनी अच्छी लगी थी कि कुछ बड़े होने पर मैंने उस किताब को मूल रूप में अंग्रेज़ी में पढ़ा, कई बार पढ़ा| किताब की नायिका जेन आयर, उसकी बचपन की सहेली हेलेन बर्न्स और नायक रोचेस्टर को मैं आज तक नहीं भूली हूं|

किशोरावस्था में मैंने एक और उपन्यास पढ़ा 'वदरिंग हाइट्स'| इसकी कहानी शुरू से अंत तक त्रासदीपूर्ण थी, पर ऐसी थी जिसने ह्फ़्तों मेरे दिमाग पर अधिकार जमाए रखा| प्रतिनायक क्लिफ़ का स्वयं को बर्बाद कर देने वाला प्रेम मुझे भीतर तक हिला गया|

जब मैंने जाना कि यह दोनों पुस्तकें दो बहनों (शार्लोट और एमिली ब्रांट) के द्वारा लिखी गई हैं तो विस्मय हुआ| मन में जानने के लिये एक उत्सुकता जागी कि ऐसा कौन सा भाग्यशाली परिवार होगा जहां ऐसी प्रतिभाशाली बेटियों ने जन्म लिया होगा| पर जब उनके बारे में पढ़ा तो जाना कि मेरी दोनों प्रिय लेखिकाएं दुर्भाग्य की गोद में खेल कर बड़ी हुई थीं| उनके अपने जीवन की कहानी अपने उपन्यासों से कम मार्मिक और दुखद नहीं थी| उनकी रचनाओं के पात्र उनके अपने जीवन से जुड़े हुए थे| जेन आयर में खुद शार्लोट की छवि थी, हेलेन बर्न्स में उसकी बड़ी बहन मारिया की और एमिली के उपन्यास के नायक हेथक्लिफ़ में उसके भाई ब्रैनवेल की | बहुत सारे अन्य चरित्र भी उनकी ज़िंदगी से जुड़े हुए थे|

इन दोनों उपन्यासों का कई अन्य भाषाओं में अनुवाद हो चुका है, हिन्दी में भी| इन कहानियों पर हिन्दी में फ़िल्में भी बनी हैं| जेन आयर पर आधारित बहुत पहले एक फ़िल्म बनी थी 'संगदिल' जिसमें नायक की भूमिका निभाई थी दिलीप कुमार ने| 'वदरिंग हाइट्स' पर आधारित फ़िल्म 'दिल दिया दर्द लिया' की प्रमुख भूमिकाएं दिलीप कुमार, वहीदा रहमान और मनोज कुमार ने निभाई थीं| दूरदर्शन पर 'वदरिंग हाइट्स' पर आधारित एक धारावाहिक भी प्रसारित हुआ था (नाम मुझे अब याद नहीं है) जिसमें हेथक्लिफ़ की भूमिका आशुतोष राणा ने निभाई थी|

अपनी प्रिय लेखिकाओं के जीवन की कहानी, जिसे मैंने कई सारे स्रोतों से जाना है, मैं पाठकों के साथ बाँटना चाहती हूँ|



ब्रांट बहनों की कहानी


उन्नीसवीं शताब्दी का पूर्वार्ध....इंग्लैंड के एक छोटे से कस्बे हावर्थ में एक निर्धन पादरी, रेवरेंड पैट्रिक ब्रांट, अपनी पत्नी मारिया, पाँच बेटियों (मारिया, एलिज़बेथ, शार्लोट, एमिली और ऐन) और एक बेटे (ब्रैनवेल) के साथ रहा करते थे। धन का अभाव बहुत था फ़िर भी पांचों बच्चे माँ के स्नेह भरे आंचल तले पल रहे थे|

रेवरेंड ब्रांट का स्वभाव बहुत ही रूखा, सख्त और बहुत हद तक सनकी भी था| सादगी का उन्हें ऐसा जुनून था कि एक बार उन्होंने अपनी बीवी की रेशम की पोशाक को कैंची से कतर डाला और एक बार किसी रिश्तेदार द्वारा उनके बच्चों को उपहार-स्वरूप दिये गए सुन्दर रंगीन जूतों को आग में झोंक दिया था| वह हमेशा एक पिस्तौल अपने साथ रखते थे| अपने गुस्सैल स्वभाव को वह ज़्यादातर नियन्त्रण में रखते थे पर कभी- कभी गुस्सा आने पर पिस्तौल से हवा में गोलियाँ चलाया करते थे| वह घर में भी अकेले रहना पसन्द करते थे और रात का खाना अपने कमरे में अकेले खाते थे| सुबह के नाश्ते और दिन के खाने का समय ही ऐसा होता था जब वह बच्चों के साथ होते थे और वह भी वे गम्भीर भाव से चुपचाप खाते हुए बिताते थे| उनका आदेश था कि परिवार का रहन- सहन, वेश-भूषा और खान-पान, सभी एकदम सादे होने चाहिए। उनका मानना था कि अच्छे बच्चों का काम अपनी पढ़ाई करना और बाकी समय बिलकुल चुपचाप रहना है|

बच्चे अभी छोटे ही थे कि परिवार पर एक गाज़ गिरी| बच्चों की माँ अड़तीस वर्ष की अल्पायु में कैन्सर से ग्रस्त होकर चल बसी| पिता घर और बच्चों( जिनमें सबसे बड़ी लड़की महज़ सात बरस की और सबसे छोटी कोई साल भर की दुधमुँही बच्ची थी) की ज़िम्मेदारी टैबी नाम की एक नौकरानी पर छोड़ कर मानो निवृत्त हो गए| टैबी घर के काम-काज के साथ अकेले क्या-क्या करती? उसके बस में इतना ही था कि किसी तरह बच्चों को नहला धुला देती और खिला-पिला देती| बाकी समय बच्चे जो चाहे वह करने के लिये आज़ाद थे| पिता के होते हुए भी अनाथ जैसे बच्चे एक- दूसरे का हाथ थामे घर में और घर के बाहर इधर-उधर भटका करते| सबसे बड़ी, सात साल की मारिया भरसक छोटे भाई-बहनों का खयाल रखती और उनकी माँ बनने की कोशिश करती| यह स्थिति लगभग साल भर चली, उस समय तक, जब तक घर चलाने और बच्चों की परवरिश करने की ज़िम्मेदारी स्वेच्छा से माँ से सात वर्ष बड़ी अविवाहित मौसी ने नहीं सँभाल ली| जो बच्चे साल भर से अपनी मर्ज़ी के मालिक थे, उन्हें मौसी के अनुशासन में रहने में शुरू-शुरू में काफ़ी दिक्कत पेश आई पर धीरे-धीरे उन्होंने मौसी को अपनी माँ की जगह दे दी|

बिन-माँ के बच्चे एक निहायत सख्त स्वभाव के पिता और नियमों की कायल मौसी के अनुशासन में पलने लगे। बच्चे बिना किसी विशेष सुख-सुविधा के और बचपन की शरारतों , हँसी -मज़ाक, खेल-कूद तथा माँ की ममता- इन सभी से रहित एक अभावमय वातावरण में बड़े हो रहे थे। कठिन परिस्थितियों ने उन्हें एक-दूसरे के बहुत करीब ला दिया। लड़कियाँ एक-दूसरे का सहारा और मित्र बन गईं और अपने भाई पर तो सारी की सारी बहनें जान छिड़कती थीं। इंग्लैंड में उस समय समाज की संरचना पितृसत्तात्मक थी| उस समय की रीति और विचार धारा के अनुरूप पिता की सारी उम्मीदें अपने इकलौते बेटे पर टिकी थीं- बेटियाँ तो उनके लिये सिर्फ़ ज़िम्मेदारियाँ थीं|

बच्चे कुछ बड़े हुए तो उनकी शिक्षा-दीक्षा का प्रश्न उठा| रेवरेंड ब्रांट की हैसियत ऐसी नहीं थी कि वह अपने सारे बच्चों को किसी सामान्य स्कूल में भेज सकें | सो उन्होंने अपनी बड़ी चार बेटियों को, जो स्कूल जाने लायक हो गई थीं, शिक्षा प्राप्त करने के लिये एक ऐसे बोर्डिंग स्कूल में भेज दिया जहाँ गरीब घरों की लड़कियाँ रहती थीं और उन्हें मुफ़्त में, बिना किसी फ़ीस के पढ़ाया-लिखाया जाता था।

बोर्डिंग स्कूल के हालात बद से बदतर थे। बच्चों को आधे पेट खाना मिलता था, वह भी बेस्वाद और गंदगी से पकाया हुआ। धर्म का पालन उनसे बेहद सख्ती से कराया जाता| ठंडे-भीगे मौसम में छोटी -छोटी लड़कियाँ पैदल चल कर गिरजाघर तक जातीं और वहाँ घंटों गीले कपड़ों में ठिठुरते हुए बिता देतीं। अनुशासन कठोर था| खेल-कूद के लिये कोई समय नहीं दिया जाता और पढ़ाई घंटों कराई जाती| लगता था कि वहाँ के प्रबन्धकों ने गरीब घरों से आई हुई बच्चियों को उनके आने वाले कठिन जीवन के लिए तैयार करने का ठेका ले लिया था। बच्चियों को वहाँ न किसी का प्यार नसीब था, न पोषक भोजन और न उचित देख-भाल। तयशुदा था कि छात्राएं बीमारियों का शिकार बनतीं। स्कूल में क्षयरोग की बीमारी एक महामारी की तरह फैली। कई लड़कियां बीमार पड़ गईं। क्षयरोग का कोई इलाज उस समय तक ढूंढा नहीं जा सका था, इसलिए यह रोग रोगी के प्राण लेकर ही जाता थ। ब्रांट परिवार की दो बड़ी लड़कियाँ , ग्यारह साल की मारिया और दस बरस की एलिज़ाबेथ क्षयरोग की चपेट में आ गईं। बोर्डिंग के प्रबन्धकों ने उन्हें अपने अंतिम दिन बिताने के लिये छोटी बहनों के साथ उनके घर भेज दिया, यह कह कर कि इन बहनों को बोर्डिग की आबो-हवा रास नहीं आती| घर पर कुछ दिन रहने के बाद पहले मारिया और फ़िर एलिज़ाबेथ की मृत्यु को गई| तीनों छोटी लड़कियों- शार्लोट, एमिली और ऐन के लिये अपनी माँ को खो देने के बाद दोनों बड़ी बहनों को खो देना एक बहुत बड़ा सदमा था, जो उन्हें जीवन भर का आघात दे गया।

बच्चों को किसी और स्कूल में भेजना संभव नहीं था, इसलिये मौसी श्रीमती ब्रैनवेल स्वयं लड़कियों को घर पर ही पढ़ाने लगीं | सहमी- दुखी लड़कियों ने राहत की साँस ली | मौसी लड़कियों को पढ़ाने के साथ-साथ उन्हें सिलाई-बुनाई, खाना पकाने और दूसरे घरेलू कामों की शिक्षा देने लगीं| जीवन की कठिन परिस्थितियों ने लड़कियों पर अलग-अलग तरह से असर डाला | एमिली का स्वभाव संकोची और अन्तर्मुखी हो गया| ऐन धर्म की ओर झुकी| शार्लोट के चरित्र में एक ज़िद्दी किस्म की दृढ़ता और जुझारूपन ने जगह बना ली|

एक अत्यंत निराशाजनक माहौल में रहते हुए भी आश्चर्यजनक रूप से तीनों छोटी लड़कियों ने अपनी जिजीविषा कायम रखी और ज़िंदगी से लड़ने का एक और रास्ता ढूँढ लिया। यह रास्ता था साहित्य-रचना का। कच्ची उम्र से ही लड़कियाँ प्रतिभा की धनी थीं। अपने मन से नया कुछ लिखना उनके लिए अपने कठिन जीवन को भूलने का एक सहज तरीका सा बन गया। खाली समय में वे अपनी कलम- कापी लेकर बैठ जातीं | उस छोटे-मामूली से से घर में मौलिक कविताएं, कहानियाँ और यहाँ तक कि उपन्यास भी लिखे जाने लगे। इस काम में लड़कियों एक-दूसरे की राज़दार थीं। रचनाएं लिखी जातीं और कापियों में बंद हो जातीं | संकोची एमिली अपनी रचनाएं किसी को दिखाना पसन्द नहीं करती थी| पहली बार जब उसकी कविताएं शार्लोट ने चुपके से पढ़ लीं तो वह बहुत नाराज़ हुई, पर अपनी बहनों के सामने उसकी झिझक धीरे-धीरे खुल गई | पिता को अपनी किशोर वय की बेटियों की रचनात्मक क्षमता के बारे में कुछ भी पता नहीं था।

पन्द्रह वर्ष की उम्र में एक बार फ़िर शार्लोट को रोवुड में मिस वूलर के स्कूल में भेजा गया जहाँ उसने पढ़ाई ही नहीं की बल्कि पहली बार कुछ सहेलियाँ भी बनाईं| स्कूल से लौटने के बाद जो कुछ भी उसने वहाँ सीखा था, वह अपनी छोटी बहनों को सिखाया|

रेवरेंड ब्रांट ने बेटे ब्रैनवेल में एक कलाकार होने की संभावनाएं देखीं, तो किसी तरह रुपये पैसे का प्रबन्ध करके बड़ी उम्मीद के साथ उसे शिक्षा के लिये लंदन भेजा। वह कलाकार बनने में बिलकुल असफ़ल रहा और कुंठित होकर उसने शराब और नशे का सहारा ले लिया। सब पैसे समाप्त हो जाने पर एक हारे हुए, दिमागी और शारीरिक रूप से बीमार इंसान के रूप में वह घर वापस आ गया। पिता, जो अपने एकमात्र पुत्र से बहुत आशाएं लगाए बैठे थे, बहुत निराश हुए पर बहनों ने भाई को हाथों-हाथ लिया और अपनी सेवा शुश्रुषा से उसे पुनः स्वस्थ बनाया।

उस समय के संकुचित और दकियानूसी विक्टोरियन माहौल में किसी लड़की के लिये इज़्ज़त के साथ जीने का एक ही तरीका माना जाता था- कि वह विवाह करके अपने पति के घर चली जाए और उसके घर व बच्चों की देख-भाल में जीवन बिता दे। पर किसी लड़की की शादी होने के लिये यह भी ज़रूरी था कि उसके पास कुछ ज़मीन-जायदाद या रुपया-पैसा हो। उस समय के अधिकतर पुरुष किसी स्टेटस वाली लड़की को ही पत्नी के रूप में पाना चाहते थे। ब्रांट बहनें इस दोहरी शर्त के आगे लाचार थीं| उनके पास ऐसा कुछ भी नहीं था जो उन्हें उनके भविष्य के प्रति आश्वस्त करता। रुपये-पैसे का दूर-दूर तक नामो-निशान ही नहीं था, सो उनसे कोई शादी का प्रस्ताव रखे, यह तो सवाल ही नहीं उठता था। यूँ भी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी की जद्दोज़हद कम नहीं थी। पादरी पिता के रहते कम-से-कम सर पर छत और खाने-पीने की सहूलियत, मामूली ही सही, पर थी। खुदा न खास्ता उन्हें कुछ हो गया तो वे सड़क पर आ जाएंगी, यह वे भी जानती थीं, और उनके पिता भी। भाई तो पहले से पिता पर आश्रित था। सो उन्हें किसी भी तरह अपनी आजीविका का प्रबन्ध करना था |

इस तरह की मध्यमवर्गीय निर्धन और अविवाहित लड़कियों की आजीविका का एक ही ज़रिया था उन दिनों, कि वे किसी रईस खानदान के बच्चों की गवर्नेस बन जाएं और कुछ सालों का अनुभव प्राप्त करने के बाद किसी बोर्डिंग स्कूल में अध्यापिका बन जाएं। ऐसी लड़कियों के जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि होती थी अपना एक छोटा-मोटा स्कूल खोल लेना। और कोई रास्ता सामने न पाकर ब्रांट बहनों ने भी चाहे-अनचाहे उस राह पर चलना शुरू कर दिया। यह अनुभव उनके लिये कुछ अच्छा नहीं रहा। गवर्नसें क्योंकि गरीब खानदान की हुआ करती थीं, उनके साथ न उनके विद्यार्थी बच्चे अच्छा सलूक करते थे न उनके अमीर माँ-बाप और परिवार के अन्य सदस्य। शिक्षित होने के बाद भी उन्हें नीची निगाह से देखा जाता था और उनकी इज़्ज़त करने की जगह उनसे मामूली नौकर की तरह व्यवहार किया जाता था। वेतन भी उन्हें बहुत कम मिलता था| बौद्धिक रुचि रखने वाली ब्रांट बहनों का इस वातावरण में दम घुटने लगा। वे जल्दी से जल्दी अपने घर लौट जाना चाहती थीं। पिता का घर उनके लिए एक शरणस्थल था जहाँ वह एक दूसरे के सहारे अपनी ज़िन्दगी गरीबी में ही सही, पर शांति से गुज़ार सकती थीं। पर आर्थिक कठिनाइयों के चलते कई साल तक ऐसा करना संभव नहीं हो पाया। कुछ अधिक कमाई हो सके, यह सोच कर उन्होंने अपने घर के पास लड़कियों का एक बोर्डिंग स्कूल खोलने की योजना बनाई| ऐसा स्कूल खोलने के लिये फ़्रेन्च और जर्मन भाषा का ज्ञान ज़रूरी था, इसलिए शार्लोट और एमिली इन भाषाओं को पढ़ने के लिये साल भर के लिये ब्रसेल्स गईं|

वहाँ से लौटने के बाद उन्होंने अपना स्कूल खोलने की बहुत कोशिश की पर उनका घर शहर से दूर होने के कारण उन्हें छात्राएं नहीं मिलीं| बहनें बहुत निराश हुईं, फ़िर भी अपनी कठिन ज़िंदगी से जूझना उन्होंने ज़ारी रखा| समाज उनकी गरीबी और लाचारी के कारण उन्हें हिकारत के भाव से देखता था | वे जिस जुझारूपन से अपनी परिस्थितियों से लड़ रही थीं, वह भी प्रशंसा की बजाय आस-पास के लोगों के लिये नापसन्दगी और उपहास का कारण था | साहित्य रचना का शौक ही उनका एकमात्र सहारा था जो कभी-कभी उन्हें सारी तकलीफ़ों के परे एक काल्पनिक संसार में ले जाता था, जहाँ सिर्फ़ वे होती थीं और होते थे उनके गढ़े हुए चरित्र।

इक्कीस वर्ष तक ब्रांट परिवार की देख-भाल करने के बाद उनकी पालनकर्त्ता मौसी श्रीमती ब्रैनवेल का सन १८४२ में निधन हुआ तो ब्रांट बहनों ने पाया कि मौसी के पास जो थोड़ी-बहुत जायदाद थी, उसे वे अपनी भांजियों- शार्लोट, एमिली और ऐन के नाम वसीयत कर गयी थीं। उस समय शार्लोट छ्ब्बीस, एमिली चौबीस और ऐन बाइस वर्ष की थी। मौसी की जायदाद बहनों ने बडी़ कृतज्ञता और राहत के साथ स्वीकार की। इन कुछ पैसों के भरोसे बहनें काम छोड़ कर पिता के घर वापस आ गईं और पूरी तरह साहित्य रचना में जुट गईं। उन्हें यह उम्मीद थी कि रचनात्मक तृप्ति के साथ-साथ इन रचनाओं के छपने से उनकी कुछ आय भी हो सकेगी जो उनके लिये आजीविका का एक सम्मानपूर्ण साधन होगी।

आगे का रास्ता आसान नहीं था। उस समय महिलाएं साहित्य के क्षेत्र में नहीं के बराबर थीं और मध्यमवर्गीय लड़कियाँ तो खैर थीं ही नहीं। लिखी हुई, तैयार रचनाओं के प्रकाशक ढूँढ़ना टेढ़ी खीर था। शार्लोट ने अपनी कुछ रचनाएं प्रकाशकों को भेजीं पर बिना पढे़ ही उसकी रचनाएं वापस कर दी गईंशार्लोट ने एक बार अपनी कुछ कविताएं उस समय के प्रसिद्ध साहित्यकार राबर्ट साउथी के पास उनकी प्रतिक्रिया जानने के लिए भेजीं। उत्तर आया,

साहित्य- रचना औरतों की आजीविका का साधन नहीं हो सकती और होनी भी नहीं चाहिए। अगर औरत अपने सामाजिक रूप से तय (घर-परिवार की देख-भाल संबंधी) कर्तव्यों को ढंग से निभा रही हो, तो उसे फ़ुर्सत ही नहीं मिलेगी कि वह कुछ लिखे। यहां तक कि उसके पास एक अभिरुचि के तौर पर या सिर्फ़ मनोरंजन के लिये भी लिखने का समय नहीं बचेगा।”

अर्थात अगर कोई स्त्री कुछ लिख रही है तो वह निश्चित तौर पर अपने समाज द्वारा निर्धारित दायित्वों की अवहेलना कर रही है! यही उस समय के करीब-करीब सभी बुद्धिजीवियों का मंतव्य हुआ करता था| पर शार्लोट ब्रांट ने हिम्मत नहीं हारी। कई बार रचनाएं प्रकाशकों द्वारा अस्वीकृत हो जाने के बाद उसे एक नया उपाय सूझा। अगर साहित्य की दुनिया पुरुषों की मिल्कियत है तो क्यों न हम बहनें उसमें पुरुष बन कर स्थान बनाएं? शार्लोट ने अपना कलमी नाम रखा करेर बेल, एमिली बनी एलिस बेल औए ऐन हो गई ऐक्टन बेल | शार्लोट ने तय किया कि तीनों बहनों की कविताओं का एक मिला-जुला संग्रह प्रकाशन के लिये तैयार किया जाए | एमिली, जो स्वभाव से संकोची और अन्तर्मुखी थी, पहले अपनी कविताएं भेजने में हिचकिचाई, पर शार्लोट ने आखिरकार उसे मना ही लिया| सन १८४६ ई. में ऐन, एमिली और शार्लोट ब्रांट ने अपना एक मिला-जुला कविता संग्रह पुरुष-सुलभ छ्द्म नामों (ऐक्टन, करेर और एलिस बेल) के साथ छपने भेजा। कविताएं अच्छी थीं, कोई आश्चर्य नहीं था कि वह संग्रह स्वीकृत हो गया और छप भी गया। किताब छ्पने के बाद जब उसकी पहली प्रतियाँ जब उनके हाथों में आईं, तो ऐन, एमिली और शार्लोट की खुशी का ठिकाना न रहा। पुस्तक हालाँकि व्यावसायिक रूप से सफल नहीं हुई, लड़कियाँ और भी उत्साह से लिखने में जुट गईं।

अगले साल शार्लोट ने अपना पहला उपन्यास, ’प्रोफ़ेसर' छपने के लिए भेजा पर प्रकाशकों ने उसे अस्वीकृत कर दिया। शार्लोट बिना निराश हुए उसे एक के बाद दूसरे प्रकाशक के पास भेजती रही और साथ ही अपना दूसरा उपन्यास, ’जेन आयर,’ लिखने में जुट गई। यह उपन्यास पूरा हुआ और उसे छपने के लिए स्वीकार भी कर लिया गया। सन १८४७ ई के अगस्त में उपन्यास 'जेन आयर' प्रकाशित हुआ। लेखक के रूप में उस पर नाम छपा था करेर बेल का, जो शार्लोट का छ्द्म नाम था। किताब छपने के दो महीने बाद शार्लोट को अपने पहले उपन्यास की प्रतियाँ मिलीं और चार महीने बाद अपना पहला पारिश्रमिक शार्लोट के हाथ में पहुँचा। उस समय उपलब्धि का जो अहसास उसे हुआ वह शब्दातीत था। जब उसने पहली बार पिता को बताया कि उसकी लिखी एक पुस्तक प्रकाशित हो गई है तो अपनी बेटियों की रचनात्मक प्रतिभा से अनजान रेवरेंड ब्रांट ने इस बात पर विश्वास ही नहीं किया, जब तक शार्लोट ने अपने 'जेन आयर' की एक प्रति और उस पर प्रकाशित कुछ समालोचनाएं उनके हाथ में नहीं थमा दीं|

लगभग उन्हीं दिनों, उसी वर्ष के अंत में ऐन और एमिली को भी सफलता मिली | ऐन का पहला उपन्यास 'एग्नेस ग्रे' ऐक्टन बेल के छ्द्म नाम से और एमिली पहला उपन्यास 'वदरिंग हाइट्स' एलिस बेल के छ्द्म नाम से प्रकाशित हो गया। जेन आयर एक उत्कृष्ट कोटि का उपन्यास था और साहित्य जगत में बेहद चर्चित और व्यावसायिक रूप से सफल हुआ'वदरिंग हाइट्स' पर मिश्रित प्रतिक्रियाएं आईं पर चर्चित वह भी हुआ| वह एकदम अलग तरह का, पाठक को झकझोर देने वाला उपन्यास था|

तीनों बहनें खुश थीं। छ्द्म नामों के चलते शोहरत मिलने का तो सवाल ही नहीं था पर उनकी रचनाओं को लोग पढ़ रहे थे और कुछ रायल्टी की रकम भी हाथ आ रही थी। यही उन्हें प्रेरित करने के लिये काफ़ी था। बहनें पूरी मेहनत से से उच्च कोटि के साहित्य की रचना में व्यस्त हो गईं। भावुक एमिली की रुचि कविताओं में अधिक थी। वह मार्मिक और दिल छू लेने वाली कविताएं लिखा करती थी। ब्रांट बहनों की रचनाएं सिर्फ़ उनकी महत्वाकांक्षा की अभिव्यक्ति नहीं थीं| लिखना उनके लिये एक ज़रूरत थी, उनकी रचनात्मकता उनकी आत्मा का पोषण करती थी | लिखना उनके लिये जीने का एक तरीका था|

ब्रांट बहनों ने अपने जीवन में जो दुख झेले थे, उन्होंने बजाए उनमें समाज और अपनी परिस्थितियों के प्रति आक्रोश और कुंठा भरने के, उन्हें औरों के प्रति कोमल और सहृदय बना दिया| पिता ने उनके प्रति कभी स्नेह नहीं जताया पर हमेशा, आर्थिक रूप से स्वतन्त्र हो जाने बाद भी, वे उनके प्रति स्नेहिल रहीं और पूरे मन से उनकी देख-भाल व सेवा किया करती थीं| भाई ब्रैनवेल से, जिसे उनका सहारा बनना चाहिये था, उन्हें जीवन भर दुख, क्लेश और परेशानी के सिवा कुछ नहीं मिला| फ़िर भी उस पर उनका स्नेह और करुणा थी| उनकी नौकरानी टैबी बूढ़ी हो जाने के कारण घर का काम करने में थक जाती थी| उसका काम कम करने के लिये एमिली सुबह-सुबह सबके उठने से पहले उठ कर रसोंई में चली जाती थी और उसका काफ़ी काम निबटा देती थी| टैबी की आँखें कमज़ोर हो गई थीं, इसलिये आलू छीलते समय छिलके के कुछ भाग बाकी रह जाते थे, फ़िर भी वह यह काम नयी कम उम्र की नौकरानी को नहीं देना चाहती थी| उसे दुख न हो इसलिये यह काम नयी नौकरानी को न देकर शार्लोट स्वयं टैबी की आँख बचा कर उन छिलकों को हटा दिया करती थी| और यह सब करना एमिली और शार्लोट ने तब भी ज़ारी रखा जब वे अपनी रचनात्मक गतिविधियों में निहायत व्यस्त थीं|

इस बीच घर का बेटा ब्रैनवेल ब्रांट, जो कला के क्षेत्र में असफल हो जाने के कारण निराश और क्षुब्ध था, आजीविका के लिये आखिरकार एक क्लर्क की नौकरी करने लगा। पर कुछ ही दिनों बाद रुपए पैसे के हिसाब में गड़बड़ी पाए जाने के कारण उसे निकाल दिया गया। पिता की समाज में जो इज़्ज़त थी उसके कारण किसी तरह वह जेल जाने से बच सका। अगली नौकरी उसने ट्यूटर की की, यानी वह एक अमीर परिवार के घर रहते हुए उनके बच्चों को पढाने लगा। उसकी नशे की आदत अब भी बरकरार थी। इस नई नौकरी के दौरान वह अपनी मालकिन (श्रीमती राबिन्सन) के प्रेम में पड़ गया। अधेड़ उम्र की मालकिन ने भी चोरी-छिपे इस प्रसंग में उसे बढ़ावा दिया। आखिरकार एक दिन बूढ़े मालिक पर इस प्रेम-प्रसंग का भेद खुल गया। ज़ाहिर है कि ब्रैनवेल को नौकरी से निकाल दिया गया। अपमानित और दुखी ब्रैनवेल अपने घर वापस आ गया। कुछ दिन बाद भाग्यवश श्री राबिन्सन का देहांत हो गया। ब्रैनवेल को आशा बंधी कि शायद अब उसे अपनी प्रेमिका, और उसके सहारे जीने का एक कारण मिल जाएगा। उसकी यह आशा निराशा में बदल गई जब श्रीमती राबिन्सन ने एक पत्र लिख कर उससे अपना नाता सदा के लिये तोड़ दिया यह कह कर, कि वह उससे संबन्ध रख कर अपने पति की जायदाद से बेदखल नहीं होना चाहतीं। ब्रैनवेल पूरी तरह टूट गया। उसमें अपनी बहनों जैसा जुझारूपन नहीं था। वह डिप्रेशन का शिकार हो गया और नशे में और भी ज्यादा डूब गया | एक बार नशे के लिए उसने इतना अधिक उधार ले लिया कि उसके फ़िर से जेल जाने की नौबत आ गई। परिवार ने किसी तरह उसका कर्ज़ चुका कर उसे बचाया। जीवन से हार मान चुका ब्रैनवेल अब सारा समय घर में ही रहने लगा| एक रात उसने अपने कमरे में आग लगा कर आत्महत्या की कोशिश भी की। समय पर पता चल जाने के कारण उसे बचा लिया गया और तबसे उसके सोने की व्यवस्था उसके पिता के कमरे में कर दी गई। शार्लोट अपने भाई की करतूतों से बहुत निराश और दुखी थी और नाराज़ भी| ऐन उसकी पागलपन से भरी हरकतों और बातों के कारण उससे डरने लगी थी| पर एमिली अब भी एक बच्चे की तरह उसकी देखभाल करती थी और उसे सँभालती थी।

ब्रैनवेल का सबसे ज़्यादा ख्याल हमेशा उससे साल भर छोटी बहन एमिली ने रखा और वही उसके सबसे ज़्यादा करीब भी थी। शायद इसकी वजह यह थी कि सब तीनों बहनों में वह सबसे ज़्यादा अकेली और सामाजिक सबन्धों से दूर थी| उसके मित्रों की संख्या बहुत छोटी थी और वह किसी से मिलना जुलना अधिक पसन्द नहीं करती थी| अपने घर से बाहर या दूर जाना भी उसे अच्छा नहीं लगता था| एमिली के अपने अकेलेपन ने उसे अपने अभागे असफल भाई की कुंठा, निराशा और असफलता के अहसास की बाकी सब परिवार के लोगों से कहीं ज़्यादा समझ दी थी| उसके मन में अपने हारे हुए भाई के प्रति सहानुभूति, करुणा और दया थी| वह हर तरह से अपने भाई को सान्त्वना देने का प्रयास करती रहती थी| रात देर तक उसके घर लौटने का इंतज़ार करती थी, और जब वह नशे में चूर घर लौटता था तो सहारा देकर उसे उसके कमरे तक ले जाती थी|

जब ब्रांट बहनों को अपने छ्द्म नामों के साथ साहित्य के क्षेत्र में सफलता मिलने लगी थी, तभी उन्होंने तय कर लिया था कि अपनी सफलता वे अपने परिवार में किसी और पर ज़ाहिर नहीं करेंगी। उन्हें डर था कि उनकी सफलता देख कर ब्रैनवेल का असफलता का अहसास और भी गहरा जायेगा और वह और भी ज़्यादा डिप्रेस हो जाएगा। ब्रैनवेल को जीवन भर पता नहीं चला कि उसकी बहनें कितनी प्रतिभाशाली हैं, उनकी लिखी किताबें प्रकाशित हुई हैं और सफल भी हुई हैं।

पुस्तकें छपने के साल भर बाद अंततः सन १८४८ के मध्य में शार्लोट और ऐन लंदन जाकर अपने प्रकाशक से मिलीं और उस पर अपना सही परिचय ज़ाहिर किया। अन्तर्मुखी एमिली, जो लोगों से मिलना-जुलना पसन्द नहीं करती थी, उनके साथ नहीं गई थी प्रकाशक ने पहली बार जाना कि दुनिया जिन्हें सफल लेखक समझती है, वास्तव में वे तीन युवा लड़कियाँ हैं। उसके आश्चर्य का ठिकाना न था। लेखिकाओं ने छ्द्म नाम से लिखना ज़ारी रखा।

ब्रैनवेल का अपने शरीर के साथ किया हुआ दुर्व्यवहार अधिक दिन तक नहीं चल सका। नशे की आदत और अनियमित जीवन से क्षीण हुई देह ने उसका साथ छोड़ दिया और सन १८४८ के सितम्बर में ३१ वर्ष की कम उम्र में उसने दुनिया छोड़ दी। इस मृत्यु का सबसे गहरा आघात कोमल और कवि हृदय की स्वामिनी एमिली को लगा। भाई की शवयात्रा में शामिल होने बाद उसने घर से निकलना ही छोड़ दिया। माँ और दो बहनों पहले ही खो चुकी एमिली अपने प्रिय और लगभग हमउम्र भाई को खोने के दर्द से वह कभी उबर नहीं सकी। उसने लिखना छोड़ दिया और पहले से भी ज़्यादा चुप रहने लगी| वह बीमार पड़ गई पर शार्लोट के लाख कहने के बाद भी इलाज कराने को तैयार नहीं हुई। ऐसा लगा कि जैसे उसमें जीने की चाह ही खत्म हो गई। शार्लोट बेबसी के साथ छोटी बहन को अपने दुख में घुलते देखती रही। भाई के निधन के कुल तीन महीने बाद ही दिसम्बर में एमिली ने भी महज़ ३० वर्ष की आयु में इस दुनिया से विदा ले ली। “वदरिंग हाइट्स ” उसका प्रथम और अंतिम उपन्यास रहा, जो इतना श्रेष्ठ है कि आजतक उसकी गणना अंग्रेज़ी भाषा के महानतम उपन्यासों में की जाती है। इस रचना के बाद उसने जो अगला उपन्यास लिखना शुरू किया था, वह अधूरा ही रह गया| उसका इतनी जल्दी इस संसार को छोड़ जाना अंग्रेज़ी साहित्य का बहुत बड़ा दुर्भाग्य कहा जा सकता है। अगर जीवन ने एमिली को और समय दिया होता, तो निश्चय ही उसके हाथों और भी उत्कृष्ट कविताओं और उपन्यासों की रचना होती|

एमिली के अंतिम दिनों में शार्लोट ने अपनी डायरी में लिखा,

एमिली की बीमारी ठीक होने का नाम नहीं लेती और उसकी खामोशी मुझे और भी बेचैन कर देती है। उससे कुछ पूछना बेकार है, कोई जवाब नहीं मिलता। उससे भी ज़्यादा बेकार है उसके इलाज की कोशिश करना- वह कोई इलाज करने को तैयार ही नहीं होती। उसकी नब्ज़ तेज़ रहती है, उसकी खांसी दिल दहला देने वाली है और वह थोड़ा भी हिलने-डुलने से हाँफने लगती है।.... अपने पूरे जीवन में किसी काम को करने में उसने ज़्यादा देर नहीं लगाई थी। वह हर काम झटपट करने वालों में थी। इस दुनिया से जाने में भी उसने देर नहीं लगाई। जल्दी- जल्दी हमें छोड़ कर चली गई। मैंने इस तरह किसी को जाते नहीं देखा, पर सच कहूँ तो मैंने किसी भी क्षेत्र में उसके जैसा कोई नहीं देखा।”

ब्रांट परिवार पर आई विपदाएं अभी समाप्त नहीं हुई थीं। एमिली के मरने के एक महीने के अंदर ही ऐन बीमार पड़ गई। पता चलने पर कि उसे क्षय रोग हो गया है, शार्लोट अपनी एक सहेली के साथ उसे हवा-पानी बदलने स्कारबरो नाम के स्थान पर ले गईं। कोई उपाय काम नहीं आया। सन १८४९ के मई महीने में ऐन ने २९ वर्ष की छोटी सी उम्र में आखिरी साँस ली। ज़िन्दगी ने ऐन को अपने पहले उपन्यास 'एग्नेस ग्रे' के बाद सिर्फ़ एक और उपन्यास लिखने और प्रकाशित करने का समय दिया था जिसका नाम था-टेनेंट आफ़ द वाइल्डफ़ेल हाल' |

आठ महीने के अंतराल में अपनी दो बहनों और भाई को खो देना शार्लोट के लिए बहुत बड़ी त्रासदी थी। उसने दुखी होकर अपनी डायरी में लिखा,

यह गाँव, आस पास फ़ैले हुए हरे-भरे मैदान, दूर दिखाई देती पर्वत श्रृंखलाएं आज भी उतनी ही सुन्दर हैं जितनी पहले थीं| मैं अब भी टहलने जाती हूं पर अब प्रकृति मुझे कोई आनंद नहीं देती| हर पेड़, हर पौधा मुझे उन सब अपनों की याद दिलाता है जिनके साथ कभी मैंने इन सबका आनन्द उठाया था| जिन्हें इन्सान प्यार करता है, उनके बिना जीने में कोई खुशी नहीं रह जाती…

इस दुख से निज़ात पाने का केवल एक तरीका शार्लोट को आता था-उसने फ़िर से अपने आप को लिखने में व्यस्त कर लिया| उसने दो और उपन्यास लिखे- 'शर्ली' और 'विलेट' | शार्लोट ने युवावस्था में एक बार, जब वह ब्रसेल्स में फ़्रेन्च सीखने गई थी,तब अपने स्कूल के मालिक से प्यार किया था, पूरे दिल दे किया था, पर उसका वह प्यार एक तरफ़ा और असफल ही रहा था| उस घटना से उसे ऐसी चोट लगी कि उसने बाद में मिला कोई विवाह का प्रस्ताव(उसको मिली सफलता के बाद ऐसे प्रस्तावों की कमी नहीं रही थी) बरसों तक स्वीकार नहीं किया| अंततः जब अड़तीस साल की उम्र में उसने अपने पिता के जूनियर श्री निकोल्स, जो वर्षों से उसे चाहते आये थे, से शादी का फ़ैसला किया, तो उसके पिता इस शादी के लिये राज़ी नहीं हुए| शार्लोट का अब परिवार में पिता के अलावा कोई नहीं रहा था और वह उन्हें भी खोना नहीं चाहती थी| उसने भारी मन से निकोल्स को शादी के लिये मना कर दिया| साल भर बाद रेवरेंड ब्रांट ने बेमन से शादी के लिये उसे इजाज़त तो दे दी पर कहा कि वह स्वयं अपने गिरजाघर में उनकी शादी नहीं कराएंगे| यहाँ तक कि वह उसकी शादी में शामिल भी नहीं हुए|

घरेलू खुशी ज़्यादा दिन शार्लोट के भाग्य में नहीं थी| शादी के कोई आठ महीने बाद ही क्षयरोग से उसकी मृत्यु हो गई | अपने अंतिम दिन जब एक बेहोशी भरी नींद के बाद जब उसने आँखें खोलीं तो अपने ऊपर झुके अपने पति को सजल नेत्रों के साथ ईश्वर से प्रार्थना करते पाया| वह बोली,

'' मैं मरने तो नहीं जा रही हूं न? भगवान हमें अलग नहीं करेगा| हम एक साथ कितने खुश हैं|”

यही उसके आखिरी शब्द थे| कुछ देर बाद उसने सदा के लिये आंखें मूँद लीं|

तब तक शार्लोट का चौथा उपन्यास 'एम्मा' आधा ही लिखा जा सका था| उसका सबसे पहले लिखा गया उपन्यास 'प्रोफ़ेसर' उसकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हो सका|

एमिली, ऐन और शार्लोट, सबने अल्पायु में और असमय इस दुनिया से विदा ली पर उनकी गिनी चुनी रचनाओं ने उन्हें अमर बना दिया है| उनका अपना जीवन एक संघर्ष की गाथा है समाज के दुहरे मानदंडों के खिलाफ़ और उसके द्वारा पैदा की गई अन्यायपूर्ण परिस्थितियों के खिलाफ़, जिसे

उन्होंने हर मुश्किल के बावज़ूद जीत कर दिखाया| उन्होंने समाज की बनी- बनाई रीतियों में बंध कर जीना अस्वीकार कर दिया और अपनी प्रतिभा का विकास करके एक सम्मानपूर्ण जीवन जिया| उनका यह संघर्ष एक प्रेरणा है हर उस इन्सान के लिए जो अपनी परिस्थितियों से हारने के बजाए उनसे लड़ने के लिये उठ खड़ा होता है|


8 comments:

Sanjay Grover said...

हुज़ूर आपका भी एहतिराम करता चलूं ............
इधर से गुज़रा था, सोचा, सलाम करता चलूं ऽऽऽऽऽऽऽऽ
-(बकौल मूल शायर)

चोखेर बाली पर इस पोस्ट की कुछ पंक्तियां पढ़ीं। उम्मीद है बाकी भी जल्दी ही पढ़ लूंगा।

durgesh said...

vandna ji...main mureed ho gaya hoon aapka...aisi knowledge based post rare hai....badhai...

anurag said...

बहुत श्रमसाध्य तरीके से आपने एक अत्यंत ज्ञानवर्धक लेख लिखा है , श्लाघनीय.

श्यामल सुमन said...

सम्वेदना सहित ज्ञानवर्धक और श्रमसाध्य रचना। वाह।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर said...

no comment, narayan... narayan... narayan

Pawan Mall said...

आप हिन्दी में लिखते हैं. अच्छा लगता है. मेरी शुभकामनाऐं आपके साथ हैं

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

likhun to kyaa likhun.....main bhi purush hi hun....yaani ki isi kaa pratinidhitva karta hun....kaise baataaun i uske krityon se kitnaa vyathit hota hun....kitnaa rota hun....likhun to kyaa likhun.....likhun to lyaa likhun....??

Nandita said...

bahaut accha likha hai.....maine ise aaj phir se padhana shuru kiya aur bina padhe uth nahin saki.....