कुल-दीपिकाओं का स्वागत

कुछ दिन पहले मेरे एक संबंधी डाक्टर तिवारी, जो एक गायनाकोलोजिस्ट हैं, तीन-चार दिनों के लिए हमारे घर आए थे। वह पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक बडे़ शहर में अपना एक छोटा सा मेटर्निटी होम चलाते हैं जिसे वह एक जूनियर डाक्टर के जिम्मे छोड़ कर आए थे। यहाँ रहने के दौरान भी नियमित रूप से मोबाइल के द्वारा वह अपने मेटर्निटी होम के कर्मचारियों से वहाँ की खबर लेते रहते थे। एक दिन वहाँ से बात-चीत के बाद उन्हें प्रसन्न देख कर पूछ बैठी,
“कुछ बढ़िया खबर है क्या?” ,
“हाँ, आज हमारे अस्पताल में तीन लड़के पैदा हुए,” उत्तर मिला।
“क्या वे बच्चे आपके मित्र परिवारों के हैं?”
“ नहीं भाभीजी, मेरे मरीज़ हैं, बस”
“फ़िर इस खुशी की वजह?”
“वजह तो वही सनातन है- तीन कुलदीपक जन्मे हैं- तीन घरों के चिराग,”
“लेकिन इससे आपको क्या फ़र्क पड़ता है?”
“भाभीजी, लड़का पैदा होते ही अस्पताल में खुशी की लहर दौड़ जाती है। बच्चे की दादी हा्थ जोड़ कर धन्यवाद देने लगती है, पिता मिठाई की दुकान को दौड़ता है। नर्सों, दाइयों को अच्छा इनाम पाने की उम्मीद बँध जाती है। और तो और, मैं भी खुश हो जाता हूँ कि ये लोग अस्पताल का बिल चुकाने में आनाकानी नहीं करेंगे। लड़की हुई तो ऐसा मुँह लटकता है सबका कि क्या कहूँ। सोचते और अक्सर कहते भी हैं कि इतनी बड़ी मुसीबत घर आ गई है उनके, सो मुझे उनके साथ हमदर्दी और रियायत से पेश आना चाहिए और और कुछ नहीं तो उनका अस्पताल का बिल तो माफ़ कर ही कर देना चाहिए,” डा. साहब हँस कर बोले।
“हमेशा ऐसा होता है?”
“नहीं, हमेशा तो नहीं। कभी-कभार लड़की के पैदा होने पर भी मिठाई मिल जाती है, उसके माता-पिता खुश दिखाई देते हैं। पर ऐसा कम होता है।”
“क्या पढे़-लिखे लोग भी लड़की होने पर दुखी होते हैं?”
“टीचर हैं न, इसलिये आपको पढा़ई-लिखाई पर बड़ा विश्वास है। भाभी जी, पढा़ई से लोग वाकई कुछ सीखते तो भला शिक्षित समाज की यह हालत होती? इतना भ्रष्टाचार होता समाज में और शहरों में इतने पढ़े लिखे लोग अपनी बहुएं जलाते?”
डा. साहब की बात ने मुझे सोच में डाल दिया। हमारी शिक्षा प्रणाली का उद्देश्य क्या सिर्फ़ लोगों को लिखना- पढ़ना सिखा कर उनकी आजीविका का प्रबंध करना है या इसके साथ-साथ उन्हें एक बेहतर, विवेकी और न्यायशील इंसान बनाना भी है? अगर मौज़ूदा शिक्षा प्रणाली ऐसा नही कर पा रही है तो क्या उस में बदलाव लाने की ज़रूरत नहीं है?
पर यह भी सच है कि कुछ हद तक तो समाज में बदलाव आया है इस शिक्षा प्रणाली के चलते और यह बदलाव हमें अपने आस-पास दिखाई भी दे रहा है। मेरी माँ की पीढी़ से लेकर मेरी बेटी की पीढी़ तक काफ़ी कुछ बदल गया है। मेरी माँ ने अपने घर में रह कर मेट्रिक तक पढ़ाई की। उनको अपने ही गाँव में अपनी सहेली के घर जाने तक की इजाज़त नहीं मिली थी, न उसकी शादी में, न उसकी माँ के देहांत के समय। कोई दो फ़र्लांग की दूरी पर रह रही सहेलियाँ कभी-कभार एक दूसरे को पत्र लिख कर नौकरानी के हाथों भेज कर अपना हाल-चाल लिया-दिया करती थीं। माँ का विवाह होने के बाद भी संयुक्त परिवार में उन पर कमोबेश बंधन बने रहे, इतने बरसों तक, कि जब वह बंधन हटे तबतक वह अपना आत्मविश्वास खो चुकी थीं। वह अब ७५ वर्ष की हैं पर आज तक कभी अकेले बाज़ार तक नहीं गई हैं। उन्हें कहीं भी जाने के लिये साथ या सहारा चाहिए।
विवाह पूर्व स्कूल-कालेज छोड़ कर और कहीं अकेले आने-जाने की आज़ादी मु्झे भी नहीं थी। पिता मुझे होस्टल भेजने को तैयार नहीं थे इसलिये एक अच्छे इंजीनियरिंग कालेज में प्रवेश मिलने के बाद भी मुझे वहाँ पढ़ने नहीं भेजा। मैंने अपने शहर के कालेज से ही स्नातकोत्तर शिक्षा प्राप्त की। पर एक फ़ौजी अफ़सर से विवाह के बाद मेरी परिस्थितियाँ बदल गईं। मैंने बाज़ार ही नहीं, बैंक, पोस्ट आफ़िस, बिजली दफ़्तर, टेलीफ़ोन एक्सचेंज, अस्पताल आदि जगहों पर अकेले जाकर अपना काम करवाना सीखा और बस और रेलगाड़ियों में अकेले और बच्चों के साथ सफ़र करना भी।
मेरी बेटी १५ वर्ष की उम्र से होस्टल में रह कर पढी़। पढा़ई के बाद एक दूसरे शहर में नौकरी मिली तो वहाँ कमरा लेकर रहने लगी। विवाहपूर्व अपनी कंपनी की ट्रेनिंग के लिए छः हफ़्ते के लिए अकेली अमेरिका गई और वापस आते समय रास्ते में तीन-चार दिन रुक कर पेरिस और वियेना घूमने के बाद भारत लौटी।
मेरी माँ की लगभग हाउस-अरेस्ट जैसी स्थिति से लेकर मेरी बेटी की अकेले विदेश यात्रा तक का यह जो सफ़र पचास वर्षों में तय हुआ है, उसका कारण शिक्षा के अतिरिक्त और क्या हो सकता है? यह मानना होगा कि शिक्षा पाने के बाद कुछ लोगों की सोच बदली है और वे अपनी बेटियों को समान अवसर दे रहे हैं या देना चाहते हैं। बाकी की भी सोच सही दिशा में बदले, इसके लिए क्या करना चाहिये?
इस बदलाव को लाने में एक बड़ी सशक्त भूमिका मीडिया निभा सकता है। मीडिया की पहुँच अब उन तबकों तक पहुँच गई है जहाँ बदलाव की सख्त ज़रूरत है। पर क्या मीडिया अपनी ज़िम्मेदारी निभा रहा है? टीवी सीरियलों को ही देख लीजिए। ज़्यादातर सीरियलों में या तो औरत मजबूर और रोती हुई दिखाई जाएगी, या बिलकुल मंथरा का अवतार। कंज़्यूमरिज़्म के दबाव में आकर हमारे ज़्यादातर सीरियल सास-बहू, ननद-भाभी के झगड़ों, भविष्यवाणियों, अन्धविश्वासों के जाल में उलझे हुए हैं। इस संबंध में एक अपवाद ध्यान में आ रहा है। एक अपेक्षाकृत नये चैनल में दिखाए जा रहे टीवी सीरियल 'उतरन' और 'ना आना इस देश मेरी लाडो' नारी शक्ति और क्षमता को बहुत पाज़िटिव ढंग से उजागर करते हैं। साथ जुड़ कर लड़कियाँ या नारियाँ बहुत कुछ कर सकती हैं।
बदलाव तो आना ही है। यह बदलाव जल्दी आए और सही दिशा में आए इसके लिए हम सबको मिल कर प्रयास करना है। वह दिन जल्दी आए जब हर बेटी के जन्म पर उसके परिवारजन कुलदीपिका के आने की खुशी मनाते दिखाई दें।

6 comments:

mehek said...

bahut achhi post,sahi shiksha hi badlav la sakti hai naari ki duniya mein.

Shikha Deepak said...

जिनके जीवन में शिक्षा का अर्थ केवल डिग्रियां पाना हो उनसे बदलाव की उम्मीद कैसे की जा सकती है। बदलाव तो वो ला सकते हैं जो शिक्षा के जरिये अपने मस्तिष्क को अपनी सोच को और अपने आप को विकसित करतें हैं। जो शिक्षा और शिक्षित होने का अर्थ समझते हैं वही इस समाज को बदलेंगे।

RAJNISH PARIHAR said...

हम चाहे कुछ भी कहें हकीकत में बेटियों के बारे में समाज की मानसिकता बदल नहीं रही है!पता नहीं क्यूँ इतनी शिक्षा कप्र्सार होने पर भी...बेटियाँ आज भी उपेक्षित तो है ही ...

L.Goswami said...

sach kaha aapne sikchha aur aatmnirbharta do aisi sarten hain jo ladkiyon ke vikash me sahyog karengi..agar ye puri ho jayen

Anonymous said...

really makes one think. and every small change can help get to a better future for girls....and society.

-Deepali :)

शोभना चौरे said...

shiksha sabhyta lati hai .shiksha ujala deti hai shiksha aatmnirbhrta ,aatmvishvas deti hai aur bhi bhut kuch jeevan me hasil hota hai shiksha se .kitu kya ?jinlogo ki kala bajari ke smachar ajkal t v par dikhaye ja rhe hai ve log ashikshi hai ?aise logo ko bachane vale charted acounted ashlkshit hai un logo ne to uchh shiksha prapt ki hai
ak achi post ke liye badhai